बर्बरीक अर्थात खाटू श्याम जी की संपूर्ण कथा सरल शब्दों में| एक ऐसे योद्धा जो पलभर में महाभारत युद्ध समाप्त कर सकते थे। Ek Mahan yoddha Barbareek (Khatu Shyam ji) ki sampurn Katha
बर्बरीक अर्थात खाटू श्याम जी की संपूर्ण कथा | Ek Mahan yoddha Barbareek (Khatu Shyam ji) ki sampurn Katha
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Barbareek or Khatu Shyam ji ki anokhi Kahani |
नमस्कार दोस्तों, उम्मीद करते हैं आप सब ईश्वर कि कृपा से अच्छे होंगे। आज हम आपको बताने वाले हैं महाभारत काल के एक ऐसे अनोखे और बहादुर योद्धा के बारे में जो महाभारत युद्ध में शामिल ना होते हुए भी महाभारत का एक महत्वपूर्ण अंग बना और जिसकी कथाओं का वर्णन आज भी बहुत प्रेम से किया जाता है।
जिस योद्धा के बारे में हम अभी बात कर रहें हैं वह महान योद्धा है , बर्बरीक। जिनको हम आज खाटू श्याम जी महाराज अर्थात हारे का सहारा नाम से भी जानते हैं।
मोरवीनंदन श्री बर्बरीक का चरित्र स्कन्द पुराण के "माहेश्वर खंड के अंतर्गत द्वितीय उपखंड 'कौमारिक खंड' में सुविस्तारपूर्वक दिया हुआ है।
बर्बरीक, पांच पांडवों में से एक पांडव भीम और उनकी पत्नी हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच और उनकी पत्नी मोरवी के पुत्र थे। अर्थात बर्बरीक, भीम के पौत्र थे। बर्बरीक ने युद्ध कला अपनी माँ से सीखी थी। बर्बरीक ने महीसागर क्षेत्र में, माँ आदि शक्ति की कठोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर माँ जगदम्बा ने उन्हें तीनों लोकों को जीतने में सक्षम धनुष और असीम शक्तियां प्रदान की और वीर बर्बरीक को उसी क्षेत्र में अपने परम भक्त विजय नामक एक ब्राह्मण के यज्ञ को सम्पूर्ण करवाने का निर्देश देकर अंतर्ध्यान हो गयीं। जब विजय ब्राह्मण का आगमन हुआ तो वीर बर्बरीक ने पिंगल, रेपलेंद्र, दुहद्रुहा तथा नौ कोटि मांसभक्षी पलासी राक्षसों के जंगलरूपी समूह को अग्नि की भाँति भस्म करके उन ब्राह्मण का यज्ञ सम्पूर्ण कराया। उस ब्राह्मण का यज्ञ सम्पूर्ण करवाने पर देवी-देवता उस वीर बर्बरीक से अति प्रसन्न हुए और प्रकट होकर यज्ञ की भस्मरूपी शक्तियाँ प्रदान कीं।
बर्बरीक ने अपने गुरु के रूप में श्री कृष्णा को चुना था इसीलिए बर्बरीक ने अपने गुरु श्री कृष्ण जी के कहने पर देवों के देव महादेव की कठोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया और उनसे वरदान के रूप में तीन अभेद्य बाण प्राप्त किये जो कि तीनों लोकों को जीतने में समर्थ थे।
जब बर्बरीक को पता चला कि कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध होने वाला है ,तो उनकी भी युद्ध में शामिल होने की इच्छा हुयी और वो अपनी माँ के पास आशीर्वाद लेने पहुंचे, तब उनकी माँ ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा कि पुत्र बर्बरीक, तुम युद्ध में शामिल होने के लिए जा सकते हो लेकिन मुझे एक वचन दो , कि युद्ध में तुम सदैव हारे हुए पक्ष का साथ दोगे । तब उनकी ये बात सुनकर बर्बरीक ने उन्हें हारे हुए पक्ष की मदद करने का वचन दिया और अपने धनुष और उन तीन अभेद्य बाणों को लेकर कुरुक्षेत्र रण भूमि की तरफ चल दिए।
जब बर्बरीक के युद्ध में भाग लेने की बात के बारे में श्री कृष्णा जी को पता चला, तो बर्बरीक की शक्ति की परीक्षा लेने के लिए श्री कृष्ण जी ब्राह्मण रूप में पहुंच गए। तब वो बर्बरीक से बोले कि भला इन तीन बाणों से तुम कैसे युद्ध करोगे ?
फिर श्री कृष्ण जी ने कहा कि यह जो पीपल का वृक्ष है इसके सारे पत्तों को एक ही तीर से छेद दो तो मैं मान जाऊंगा। तब इस बात का प्रमाण देने के लिए बर्बरीक ने तरकस से बाण निकाला और आज्ञा लेकर तीर को वृक्ष की ओर छोड़ दिया।
जब तीर एक-एक कर सारे पत्तों को छेदता जा रहा था उसी दौरान एक पत्ता टूटकर नीचे गिर पड़ा। कृष्ण ने उस पत्ते पर यह सोचकर पैर रखकर उसे छुपा लिया कि यह छेद होने से बच जाएगा, लेकिन सभी पत्तों को छेदता हुआ वह तीर कृष्ण जी के पैरों के पास आकर रुक गया। तब बर्बरीक ने कहा कि प्रभु आपके पैर के नीचे एक पत्ता दबा है कृपया इस पर से पैर हटा लीजिए, क्योंकि मैंने तीर को सिर्फ पत्तों को छेदने की आज्ञा दे रखी है आपके पैर को छेदने की नहीं।
तत्पश्चात, श्री कृष्ण जी ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस ओर से युद्ध करेगा तो; बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन को दोहराया और कहा कि युद्ध में जो पक्ष निर्बल और हार रहा होगा मैं उसी को अपना साथ दूंगा। लेकिन श्री कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की निश्चित है और इस कारण अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम गलत पक्ष में चला जाएगा।
अतः ब्राह्मण वेश में आये हुए श्री कृष्ण जी ने बर्बरीक से दान की इच्छा रखी । तब बर्बरीक ने दान देने की इच्छा को पूर्ण करने की बात कही। तब ब्राह्मण रूपी श्री कृष्ण ने बर्बरीक से उनके शीश का दान मांग लिया। तब बर्बरीक ने कहा कि हे ब्राह्मण, कोई साधारण ब्राह्मण ऐसा दान नहीं मांग सकता। कृपया करके बताइये आप कौन हैं और आपका वास्तविक रूप क्या है? तब श्री कृष्ण जी अपने वास्तिविक रूप में प्रकट हुए और बर्बरीक से कहा कि युद्ध आरम्भ होने से पूर्व युद्धभूमि पूजन के लिए तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ क्षत्रिय के शीश की आहुति देनी होती है; इसलिए ऐसा करने के लिए वे विवश थे। तब बर्बरीक ने श्री कृष्णा जी को शीश दान में देने कि सहमति जताई और उनसे प्रार्थना भी की कि मेरी ये इच्छा है कि मैं अन्त तक युद्ध देखना चाहता हूँ। श्री कृष्ण ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। इसके बाद बर्बरीक ने अपने शीश का दान दे दिया। उनके इस बलिदान से प्रसन्न होकर श्री कृष्ण जी ने उन्हें युद्ध में सर्वश्रेष्ठ वीर की उपाधि से अलंकृत किया। और उनके कटे हुए शीश को श्री कृष्ण जी के आह्वाहन पर माँ चंडिका द्वारा अमृत छिड़क कर उस शीश को देवत्व प्रदान करके अजर-अमर बना दिया गया एवं भगवान् श्री कृष्ण द्वारा वीर बर्बरीक के शीश को कलियुग में देव रूप में पूजित होकर भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने का वरदान भी दिया गया । और साथ में श्री कृष्ण जी ने वरदान में ये भी कहा कि हे वत्स! जब तक यह पृथ्वी, नक्षत्र है और जब तक सूर्य, चन्द्रमा है, तब तक तुम सभी के लिए पूजनीय रहोगे और इसके साथ साथ तुम अपने भक्तों के कष्टों और रोगों को सरलता से दूर भी करोगे और कलियुग में तुम श्याम नाम से भी जाने जाओगे, क्योंकि उस युग में हारे हुए का साथ देने वाला ही श्याम नाम धारण करने में समर्थ है।
इसके बाद इनकी युद्ध देखने की इच्छा को पूर्ण करने के लिए उनके शीश को युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया; जहाँ से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।
बर्बरीक के शीश को खाटू नगर जो कि वर्तमान में राजस्थान राज्य के सीकर जिले में है , में दफनाया गया था इसलिए उन्हें खाटू श्याम बाबा भी कहते हैं। वर्तमान में खाटू श्याम जी शीश का दान करने के कारण से 'शीश के दानी' और हारे हुए पक्ष की मदद करने की वजह से 'हारे का सहारा' के नाम से भी जाने जाते हैं।
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